चलती हुई जिंदगी की रफ़्तार पर कोरोना ने ब्रेक लगा दिया है। भविष्य अनिश्चित सा है। लोगों के सामने जिंदगी को वापस पटरी पर ले आने की चुनौती है तो सरकारें गिरती हुई अर्थव्यवस्था को सम्हालने की चुनौती से जूझ रही हैं। बीते कुछ महीनों में जिंदगी का पैटर्न पूरी तरह बदल चुका है। लाखों लोगों का काम छीन गया है या फिर बंद पड़ा है। जो रोजी रोटी की चिंताओं से मुक्त हैं उनके लिए सुरक्षित बचे रहने की चिंता बाकी हर चीज पर हावी है। मास्क और सैनिटाइजर भी कोरोना के डर से बचा पाने में अपर्याप्त साबित हो रहे हैं। आखिर हम इस सच को नजरंदाज कैसे करें कि हाइजीन का अच्छा-खासा ख्याल रखने वाले यूरोप और अमेरिका हमसे पहले ही कोरोना के सबसे बड़े शिकार बन चुके हैं।
हर चीज पर असमंजस की स्थिति है। कोरोना वायरस की वैक्सीन खोजी जा सकेगी या नहीं? जॉब का क्या होगा? परीक्षाएं होंगी या नहीं? कहीं लॉकडाउन दुबारा तो नहीं लग जाएगा? और सबसे बड़ा सवाल कि क्या हम और हमारे अपने इस विपत्ति से सुरक्षित निकल पायेंगे? हर तरफ डर का माहौल है लेकिन यह डर बेबुनियाद है।
कोरोना वायरस के बारे में सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि हम उसके बारे में बहुत कम जानते हैं। लिमिटेड टेस्टिंग और आंकड़े जुटाने की दोषपूर्ण पद्धति ने इस चुनौती को और जटिल बना दिया है। जब हम किसी समस्या से ठीक से परिचित होते हैं तो हमें उसके प्रति एक रवैया अपनाने में आसानी होती है लेकिन यह अनिश्चितता हमारी चिंताओं को और बढ़ाती है। नतीजा है कि सारे नुस्खे अपनाने के बाद भी हम नहीं समझ पा रहे कि हम कितने सुरक्षित हैं। आधी-अधूरी सूचनाओं की हर लहर हमें एक तरफ से धकेल कर दुसरी तरफ पहुंचा देती है। दुनिया को उम्मीद की तलाश है और वह उम्मीद सेनिटाइजर से लेकर खबरों तक की अलग-अलग शक्लों में बेची जा रही है. ऐसी भविष्यवानियाँ भी की जा चुकी हैं कि भारत में 4 जून तक कोरोना 99% खत्म हो जाएगा।
इस मुश्किल दौर में सिर्फ उम्मीद ही बिकाऊ नहीं है, डर भी उतना ही विश्वसनीय बिकाऊ माल बन चुका है। टिड्डी दल, तूफ़ान भूकंप और उल्कापिंड से दुनिया के महाविनाश की खबरें कुछ इस तरह पेश की जा रही हैं जैसे दुनिया का अंत निश्चित हो गया हो।
लेकिन कोरोना का मामला महाविनाश की बाकी भविष्यवाणियों और खबरों से बिल्कुल अलग तरह का है क्योंकि इसके पीछे विज्ञान का आधार, आंकड़ों की ताकत और हमारा रोजमर्रा का अनुभव मौजूद है और इसीलिए खबरों के विश्वसनीय स्रोत भी डरावनी तस्वीर पेश कर रहे हैं।
इस रिपोर्ट को तैयार किये जाने तक दुनिया भर में कोरोना से संक्रमित मामलों की ज्ञात संख्या 1 करोड़ और मरने वालों की संख्या पांच लाख को पार कर गई है, वहीं भारत में संक्रमित लोगों की ज्ञात संख्या 6 लाख और मरने वालों की संख्या 17 हजार को पार कर चुकी है। संक्रमित लोगों की वास्तविक संख्या निश्चित रूप से और ज्यादा है। हेल्थ केयर सिस्टम चरमरा चुका है और बड़ी तेजी से खुद डॉक्टर ही मरीज बनते जा रहे हैं। संक्रमण से सबसे ज्यादा प्रभावित देशों की सूची में भारत बहुत तेजी से तरक्की करते हुए चौथे पायदान पर आ चुका है। हर रोज पुराने रिकॉर्ड टूटते जा रहे हैं, ऐसा लगता है कि महामारी का सबसे भयानक कहर अभी आने वाला है।
मीडिया में आजकल जो कुछ भी हो रहा है उसे आंकड़ों की बमबारी का नाम दिया जा सकता है। हम रोज-रोज सिर्फ आंकड़े देख रहे हैं और ये आंकड़े हमें कुछ और सोचने-समझने में अक्षम बना सकते हैं। हम इन विराट आंकड़ों के आगे हार मान लेते हैं, बिना यह ध्यान दिए कि आधा सच झूठ के बराबर होता है और अधूरे आंकड़े आपको आधा सच ही दिखाते हैं।
अगर फरवरी 2020 से कोरोना संक्रमण की शुरुआत मानें तो इसने जून तक इन पांच महीनों में लगभग पांच लाख जानें ली हैं। यानि हर महीने एक लाख मौतें कोरोना से हुई हैं। यही वह गिनती है जिसे बढ़ते क्रम में रोज-रोज बताते हुए लगातार लोगों को डराया गया है। ऐसा भ्रम पैदा होने लगा है जैसे लोग सिर्फ कोरोना से मर रहे हैं।
कोरोना की हैसियत को ठीक से समझने के लिए जरूरी है कि उसे जिंदगी और मौत की पूरी तस्वीर के बीच रख कर देखा जाए। पिछले 65 सालों में जनसंख्या बढ़ने के बावजूद दुनिया में मौतों का आंकड़ा बहुत नहीं बदला है और पिछले 30 सालों के दौरान यह हमेशा पांच से छः करोड़ के बीच ही रहा है। हाल के वर्षों में हर साल लगभग
5 करोड़ 60 लाख लोगों की मौत हुई है। यानि औसतन दुनिया भर में हर महीने 47 लाख लोगों की मौत हो जाती है हृदय रोग और कैंसर सबसे ज्यादा जानलेवा बीमारियां हैं जो लगभग आधी मौतों की वजह बनती हैं और हर पांचवीं मौत संक्रामक बीमारियों से होती है।
अगर कोरोना वायरस ने हर महीने 1 लाख जानें ली हैं तो यह गिनती बाकी घातक बीमारियों के आगे बहुत छोटी है। दुनिया में होने वाली कुल मौतों के आगे तो यह संख्या बौनी नजर आती है
ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि यह डर क्यों और कैसे फैलाया जा रहा है? मीडिया से लेकर सरकारें तक इसे ले कर इतनी गंभीर क्यों हैं?
हर साल दुनिया भर में होने वाली मौतों के आंकड़ों पर नज़र डालें तो कुछ हैरान करने वाली सच्चाइयां सांमने आतीं हैं । मौत भी अमीर और गरीब के बीच खासा फर्क करती है। गरीब देशों में आधी से अधिक मौतें संक्रामक बीमारियों, प्रसव संबंधी समस्याओं और कुपोषण के कारण होती हैं, जबकि संपन्न देशों में इनके चलते सिर्फ 7% लोगों की मृत्यु होती है।
इसे भारत के हवाले से और अच्छी तरह समझा जा सकता है। उदाहरण के लिए 2017 में भारत में डायरिया और TB से क्रमशः 7 लाख 19 हजार और 4 लाख 49 हजार मौतें हुईं जो भारत में कुल मौतों 97 लाख मौतों का 12% थीं। दूसरी तरफ इसी अवधि में यूनाइटेड स्टेट्स में इन बीमारियों से क्रमश: 9506, और 939 मौतें हुईं जो वहां कुल 28 लाख मौतों का ल गभग 0.37 प्रतिशत थीं। ऐसे में जाहिर है कि डायरिया और TB जैसी बीमारियां अमेरिका या अन्य संपन्न देशों की चिंता का विषय बिल्कुल नहीं होंगीं। यही वह रहस्य है जिसके चलते संपन्न देशों में कोरोना को लेकर हाहाकार मचा हुआ है। संक्रामक बीमारियों की चिंता से बहुत हद तक मुक्त हो चुके इन संपन्न देशों को, बहुत लंबे समय बाद एक ऐसी संक्रामक बीमारी का सामना करना पड़ रहा है जिसका इलाज तक उनके पास नहीं है। लेकिन भारत और दूसरे तमाम गरीब देश जो अन्य घातक संक्रामक बीमारियों का घर हैं वे असल में संपन्न देशों की चिंताओं का बोझ उठा रहे हैं। धीरे-धीरे यह भी दिखने लगा है कि खुद भारत में भी कोरोना को लेकर अमीरों और गरीबों की चिंताओं में फर्क है। गरीबों के लिए उनकी रोजी-रोटी का छिन जाना कोरोना से कम घातक नहीं रहा है।
कोरोना के डर को समझने के लिए TB पर ध्यान देना हमारे लिए विशेष रूप से उपयोगी है। यह भी संक्रामक बीमारी है और इसका संक्रमण कोरोना से भी तेज होता है विश्व स्वास्थ्य संगठन की वेबसाइट बताती है कि “टीबी हवा के जरिये एक व्यक्ति से दुसरे व्यक्ति तक फैलता है। जब फेफड़ों की टीबी से ग्रस्त व्यक्ति खांसते, छींकते या थूकते हैं तो वे टीबी के कीटाणुओं को हवा में फैला देते हैं। संक्रमित होने के लिए व्यक्ति को इन कीटाणुओं में से सिर्फ कुछ को सांसों में खींचने की जरूरत होती है।”
वेबसाइट यह भी जानकारी देती है कि दुनिया के एक चौथाई यानी लगभग दो अरब लोग, लेटेंट टीबी के शिकार हैं और कभी भी बीमार पड़ सकते हैं। हर साल दुनिया भर में 1 करोड़ लोग टीबी से संक्रमित होते हैं और 15 लाख लोगों की मौत टीबी से होती है। भारत टीबी से प्रभावित देशों की सूची में सबसे ऊपर बना हुआ है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक TB का एक मरीज हर साल 5 से 15 लोगों को संक्रमित कर सकता है जबकि कोरोना से ग्रस्त एक मरीज बीमारी के दो-तीन हफ्तों के बीच औसतन 2.5 लोगों को संक्रमित कर सकता है।
कोरोना संक्रमण से मृत्यु की दर बहुत विवाद का विषय बना हुआ है। अगर कुछ देशों पर मृत्यु के आंकड़े छिपाने के आरोप लगे हैं तो वहीं खुद विश्व स्वास्थ्य संगठन पर खतरे को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने गंभीर आरोप भी लगे हैं। मार्च के आरंभ में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोरोना संक्रमण से 3.4% मृत्युदर का अनुमान जताया जबकि अप्रैल में अमेरिका के केंद्रीय संस्थान सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन ने ज्यादा आंकड़ों के साथ फिर से गणना करते हुए मृत्युदर 0.26% बताई। ध्यान रखने की बात यह है कि टेस्ट्स की संख्या जितनी अधिक होगी उतने ही अधिक संक्रमितों का पता चल सकेगा और बदले में मृत्युदर और घट जाएगी। सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन से लेकर जनता को परोसे जा रहे असंशोधित आंकड़ों तक में कोई भी TB की मृत्युदर 15% के आसपास नहीं ठहरता। यानि कोरोना के मुकाबले टीबी से मरने की संभावनाएं कई गुना अधिक हैं।
अगर हम इन्हीं आंकड़ों के आधार पर और अनुमान करें तो इन्हीं 5 महीनों की अवधि में जबकि भारत में कोरोना से लगभग 17 हजार लोग मरे हैं, टीबी से 1 लाख 80 हजार और डायरिया संबंधी बीमारियों से 3 लाख जानें जा चुकी होंगी। यह एक दुखद सच्चाई है कि टीबी और डायरिया खुद हमारे देश में मुख्यतः गरीबों की बीमारियां हैं। इतना घातक होने के बावजूद टीबी को लेकर ऐसा कोई डर या सावधानी की कोई खास चिंता भारत में सिरे से नदारत है। इसकी दो ही वजहें हो सकती हैं। या तो लोग TB के खतरे से नावाकिफ हैं या उन्हें कोरोना का खतरा बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया जा रहा है।
या अगर ये दोनों ही बातें सच हैं तो फिर ये लोगों को अंधेरे में रख कर रख कर डराने की साजिश के आलावा और कुछ नहीं है। सोचने की बात है कि इस साजिश में किसका क्या फायदा हो सकता है।
TB तो बहुत दूर की चीज है, लोगों के लिए या बात कल्पना से भी परे है कि साधारण मौसमी फ्लू या जुकाम कितना घातक होता है। चूंकि इसे गंभीर समस्या नहीं माना जाता इसीलिए इसके ज्यादातर मामले रिपोर्ट नहीं किए जाए। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुमान के मुताबिक लगभग एक अरब लोग हर वर्ष फ्लू से संक्रमित होते हैं जिनमें 30 से 50 लाख लोग गंभीर रूप से बीमार पड़ते और इससे 2 लाख 90 हजार से लेकर साढ़े 6 लाख के आसपास मौतें हर साल होती हैं। अगर आपको रात-दिन सिर्फ और सिर्फ जुकाम से होने वाली मौतों के बारे में ही बताया जाए तो 3 से 6 लाख का आंकड़ा कम दहशत पैदा करने वाला नहीं होगा।
जुकाम से कोरोना की तुलना अजीब लगती है लेकिन हैरानी की बात यह है कि दोनों में इतनी ज्यादा समानताएं हैं कि बहुत से लोग कोरोना को भी फ्लू का ही एक रूप मानते हैं। दोनों का संक्रमण एक ही तरह ड्रॉपलेट्स के जरिए होता है, बुखार, खांसी, शरीर दर्द और नाक का बहना दोनों के बुनियादी लक्षण हैं, दोनों से बचाव के उपाय एक से हैं और दोनों के खतरे भी लगभग एक से है। दोनों का फर्क तकनीकी किस्म का है। जहां कई तरह के वायरस फ्लू के लिए जिम्मेदार हैं और डॉमिनेंट सीजनल वायरस के मुताबिक हर साल उसकी वैक्सीन लगवानी पड़ती है, वहीं कोरोना के लिए एक ही वायरस जिम्मेदार है और अब तक इसकी वैक्सीन नहीं बनी है, दोनों बीमारियों की इन्क्यूबेशन पीरियड में भी अंतर देखा गया है।
पहले से किसी गंभीर रोग से जूझ रहे मरीजों, गर्भवती महिलाओं और बुजुर्गों को दोनों ही बीमारियों से अधिक खतरा है। कोरोना या फ्लू और उस जैसी बहुत सी बीमारियां खुद अपने आप में मौत का कारण नहीं होतीं लेकिन यह पहले से ही मौत की कगार पर खड़े इंसानों के लिए आखिरी निर्णायक धक्का साबित होती हैं।
डॉक्टरों और वैज्ञानिकों के बीच यह आम धारणा है कि कोरोना, फ्लू की अधिकांश किस्मों के मुकाबले ज़्यादा खतरनाक है लेकिन यह ध्यान रखने की बात है कि अपने आरंभिक दौर में इन्फ्लूएंजा इससे कहीं अधिक घातक हुआ करता था। इन्फ्लूएंजा की एक श्रेणी H1N1 या ‘स्पेनिश फ्लू’ ने 1918-19 के बीच 5 करोड़ लोगों को खत्म कर दिया था, इसी श्रेणी का एक अन्य वायरस हाल के दिनों में स्वाइन फ्लू के रूप में उभरा था।
एक अंग्रेजी दैनिक में प्रकाशित खबर के अनुसार भारत में कोरोना से होने वाली मृत्यु की दर फ्लू से बस जरा सा अधिक है।
इम्यून सिस्टम ठीक-ठाक हो तो दोनों ही खुद ब खुद ठीक हो जाने वाली बीमारियां है। खुद विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक कोरोना से संक्रमित 80% लोगों को किसी हॉस्पिटल ट्रीटमेंट की जरूरत नहीं पड़ती सिर्फ 5% मामले ही अधिक गंभीर की श्रेणी में आते हैं। टेस्टिंग की मात्रा बढ़ने के साथ-साथ ऐसे एसिम्प्टोमैटिक मरीज अधिकाधिक संख्या में सामने आ रहे हैं जिनमें बीमारी के कोई लक्षण दिखाई नहीं दे रहे – ऐसे मरीजों को बीमारी से कोई खतरा भी नहीं है।
कोरोना से कई गुना घातक और व्यापक TB और डायरिया जैसी बीमारयों के प्रति लोगों की लापरवाही और जुकाम से मिलती-जुलती एक बीमारी से इस कदर डर बहुत गंभीर समस्याओं की ओर इशारा करता है। यह बताता है कि लोग अपनी ही कीमती जिंदगी को लेकर किस कदर लापरवाह हैं। यह मीडिया की ताकत और उसकी भूमिका के बारे में भी बताता है।
डर इंसान को बीमार कर सकता है और मार भी सकता है लेकिन इसके आलावा डर इंसान से बहुत कुछ कराता है। पैनिक शॉपिंग जैसे उदाहरण बताते हैं कि डरा हुआ इंसान अच्छा खरीददार हो सकता है। वह मंहगे दामों पर जरूरत से ज्यादा सामान खरीद सकता है। डर इंसानों को स्वार्थी और असामाजिक बनाता है और डर उनकी आजादी को छीनने का आसान बहाना भी बन सकता है।
कोरोना ने खुद से लोगों को नहीं डराया है। यह डर तमाम घोषणाओं और आंकड़ों के जरिये लोगों के मन में भरा गया है।
कोरोना का डर एक मानव रचित त्रासदी है। यह मानवता के प्रति किए गए सबसे बड़े अपराधों में से एक है। लेकिन कोरोना का यह हौवा बहुत लंबा नहीं खींचा जा सकता, अब जबकि अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए सरकार ने भी जान के बजाय जहान की चिंता शुरू कर दी है, बहुत जल्दी आपको सूचना दी जाएगी कि अब कोरोना खतरनाक नहीं रह गया है।
कोरोना भले ही बहुत खतरनाक न हो लेकिन वह खतरे की घंटी है। इसने हमारे हेल्थ केयर सिस्टम की पोल खोल दी है। आजादी के बाद से ही लगातार स्वाथ्य के क्षेत्र की उपेक्षा की गई है, GDP और बजट में इसका हिस्सा श्रीलंका और बांग्लादेश जैसे बहुत से गरीब देशों से भी कम है। भारत में गंभीर मरीजों के लिए भी हास्पिटल और डॉक्टर्स की बेहद कमी है और देश किसी भावी संक्रामक चिकित्सकीय आपदा का सामना करने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं है।
सावधानी और डर दो बिल्कुल अलग चीजें हैं। डरे हुए इंसान के गलतियां करने की संभावना ज्यादा है। कोरोना ही नहीं तमाम संक्रामक बीमारियों से एहतियात बरतना जरूरी है। जरूरी है कि आप समय रहते सचेत हों और दूसरों को भी सचेत करें। अगर आप सावधानियां बरतते हुए भी डरने से बचे रहे तो आपके बचे रहने की उम्मीदें बहुत ज्यादा हैं।