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बॉडी डिस्मॉर्फिया : एक मानसिक बीमारी

by Team Titu
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हममें से ज्यादातर लोग किसी न किसी रूप में अपने शरीर या अपीयरेंस से असंतुष्ट होते हैं। शायद हमारा बस चलता तो हम कोई और ही रंग-रूप, लंबाई या बॉडी शेप के साथ जन्म लेना पसंद करते। अपनी इस असंतुष्टि की वजह से भी हम बार-बार आईने में खुद को चेक करते हैं और मेकअप करते हैं। अपने-आपसे यह असंतोष एक स्वाभाविक प्रक्रिया है क्योंकि इसी की वजह से हम खुद को सुधारते और बेहतर बनाते हैं. लेकिन कुछ लोगों में अपने शरीर या अपीयरेंस को लेकर यह असंतोष इतना ज्यादा बढ़ जाता है कि नॉर्मल जिंदगी जीने में बाधा पैदा करने लगता है। यह एक मनोवैज्ञानिक बीमारी है जिसे बॉडी डिस्मॉर्फिक डिसऑर्डर या बॉडी डिस्मॉर्फिया कहते हैं।

बॉडी डिस्मॉर्फिया से ग्रस्त इंसान इस वहम का शिकार रहता है कि उसके शरीर मे कोई दोष है, जिसके चलते वह फूहड़ नजर आता है। 

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एक अनुमान के मुताबिक भारत मे हर साल बॉडी डिस्मॉर्फिया के 10 लाख नए मामले आते हैं। आम मध्यवर्गीय लोगों से लेकर सेलिब्रिटीज और फिल्म एक्टर्स तक इस बीमारी के शिकार हो चुके हैं। ऊपर से सामान्य सी आदत नजर आने वाली यह बीमारी इतनी खतरनाक है कि गंभीर होने पर यह इंसान को मौत की कगार पर पहुंचा सकती है। अधिकांश लोगों के अंदर अपने अपीयरेंस को लेकर यह असंतुष्टि जाने-अनजाने मौजूद होती है, इसीलिए समय रहते इस बीमारी को पहचानना और बचाव के उपाय अपनाना बेहद जरूरी है।

खुद को बार-बार शीशे में देखना बॉडी डिस्मॉर्फिया का सबसे मुख्य लक्षण है लेकिन शीशा देखने वाला हर इंसान बॉडी डिस्मॉर्फिया का मरीज नहीं होता।

बॉडी डिस्मॉर्फिया आत्ममुग्धता या नार्सेसिज्म से ठीक उलट है। जहां आत्ममुग्ध इंसान आईने में घंटों अपनी खूबसूरती को निहारता है और इससे उसे खुशी मिलती है, वहीं बॉडी डिस्मॉर्फिया से ग्रस्त व्यक्ति आईने में अपनी छोटी-मोटी या काल्पनिक कमियों को ही देखता और चिंतित होता रहता है। असल में आत्ममुग्धता और बॉडी डिस्मॉर्फिया एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। शरीर पर जरूरत से ज्यादा ध्यान देने वाले लोग भावनात्मक असंतुलन की स्थिति में इनमें से किसी का शिकार बन सकते हैं। 

बॉडी डिस्मॉर्फिया की समस्या त्वचा के रंग, बालों, नाक या होंठ के आकार या चेहरे की गढ़न समेत शरीर के किसी भी हिस्से से सम्बंधित हो सकती है। बीमार व्यक्ति को लगता है कि शरीर का वह हिस्सा बुरा, बेडौल या बदसूरत है और लोगों की नजर उस हिस्से पर जरूर जाएगी। ध्यान रखने की बात यह है कि यह मुहांसे या मस्से जैसी कोई छोटी-मोटी चीज हो सकती है या यह कोरा वहम भी हो सकता है। उदाहरण के लिए किसी को अपनी नाक बेडौल लग सकती है, भले ही उसकी नाक बिल्कुल दुरुस्त हो। वह जितना ही ज्यादा ध्यान से अपनी नाक को देखेगा वह उसे उतनी ही फूहड़ नजर आएगी। 

गंभीरता से ईमानदारी पूर्वक निरीक्षण करने पर इस बीमारी को पहचाना जा सकता है। बीमारी से ग्रस्त इंसान अपने शरीर के किसी हिस्से को बार-बार अलग-अलग एंगल से आईने में देखता है या उस हिस्से की फोटो खींचकर ध्यान से देखता रहता है. बीमार व्यक्ति दूसरों के शरीर के उसी हिस्से पर ध्यान देता रहता है और लगातार उनसे अपनी तुलना करता है। उसे लगता है कि हर कोई उसके उसी बॉडी पार्ट को देखने की कोशिश कर रहा है। कपड़ों या मेकअप से उस हिस्से को ढकने या छिपाने की कोशिश करना, दूसरों से अपने अपीयरेंस को लेकर पूछना, सकारात्मक जवाब मिलने पर उसे झूठ समझना और उस समस्या को दूर करने के लिए तरह-तरह के ब्यूटी प्रॉडक्ट या नुस्खे आजमाना इस बीमारी के आम लक्षण हैं। बॉडी डिस्मॉर्फिया के 8 से 15% मरीज कॉस्मेटिक सर्जरी का सहारा लेते हैं लेकिन दुखद बात यह है कि 90% मामलों में सर्जरी से उन्हें कोई खास संतुष्टि नहीं मिलती। डिस्मॉर्फिया के कुछ मामलों में व्यक्ति आईना देखने से बचने लगता है या पूरी तरह छोड़ भी सकता है। डिस्मॉर्फिया के कई लक्षण ओसीडी जैसे ही होते हैं, खास कर तनाव और किसी काम को बार-बार दुहराने का ऑब्सेशन लेकिन डिस्मॉर्फिया में शरीर का कोई खास हिस्सा सारी चिंता का केंद्र होता है। 

अपने शुरुआती दौर में आमतौर पर यह बीमारी सामान्य आदत सी लगती है लेकिन समस्या बढ़ने पर यह इंसान को सामान्य नहीं रहने देती। चूंकि बुरा दिखने का तनाव दिमाग पर छाया रहता है इसलिए पढ़ाई या काम में बिल्कुल मन न लगना आम बात हो जाती है। प्रभावित व्यक्ति लोगों के बीच मे जाने से बचने की कोशिश करने लगता है और अगर संभव हो तो अंधेरा होने के बाद ही निकलता है। इसका परिणाम रिश्तों में दूरी,  डिप्रेशन और यहां तक कि आत्महत्या के बारे में सोचने के रूप में  सामने आ सकता है। एक अध्ययन के मुताबिक बॉडी डिस्मॉर्फिया से ग्रस्त 80% मरीजों के मन में आत्महत्या करने का खयाल आता है और उनमें से चौथाई मरीज वास्तव में आत्महत्या कर लेते हैं।   

मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि मस्तिष्क में हार्मोनों का बदलाव या अनुवांशिक कारण भी डिस्मॉर्फिया को जन्म दे सकते हैं लेकिन व्यक्तिगत और सामाजिक कारणों की भूमिका कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है।

शारीरिक सुंदरता के प्रति अतरिक्त सजगता और चीजों के प्रति परफेक्शनिस्ट अप्रोच इसके मुख्य व्यक्तिगत कारण हैं हालाँकि ज्यादातर मामले अतीत के बुरे अनुभवों से जुड़े होते हैं। शरीर का मजाक उड़ाया जाना, शारीरिक या मानसिक उत्पीड़न, परिवार या समाज में दूसरों की तुलना में भेदभाव या उपेक्षा या रिश्तों में असफलता भी डिस्मॉर्फिया को जन्म दे सकती है। दुखद बात यह है कि ऐसी स्थिति में व्यक्ति कारण को ही परिणाम मानने लगता है, यानी उसे यह नहीं लगता कि असफल होने के कारण उसे अपने अंदर कमी दिख रही है, बल्कि उसे ये लगने लगता है कि उसकी शारीरिक कमी के कारण ही उसे रिजेक्ट किया गया है।

मनोवैज्ञानिकों ने इस बात को पहचाना है कि अलग-अलग समाजों में सौंदर्य के पैमानों के अनुसार ही डिस्मॉर्फिया के प्रकार भी अलग-अलग हैं। उदाहरण के लिए जापान में आईलिड के आकार को लेकर बहुत से लोगों में डिस्मॉर्फिया पाया जाता है जबकि अमेरिका में अपवादस्वरूप ही ऐसा होता है।

इसी तरह पश्चिमी समाजों में मसल्स को लेकर डिस्मॉर्फिया एक आम समस्या है, जबकि यह पूर्वी एशियाई समाजों में बहुत कम है। हाल के दिनों में बॉडी बिल्डिंग को लेकर बढ़ते जूनून के चलते भारत में भी मसल्स डिस्मॉर्फिया के बढ़ने की काफी संभावनाएं हैं। 

इससे एक बात स्वाभाविक तौर पर निकल कर आती है कि जिन समाजों में शारीरिक आकार-प्रकार को लेकर कड़े मानदंड होंगे, व्यक्ति के गुणों से ज्यादा उसके शरीर पर ध्यान दिया जाएगा और शारीरिक रूप से सुन्दर दिखने का दबाव जहां ज्यादा होगा बॉडी डिस्मॉर्फिया की समस्याएं भी वहां उतनी ही ज्यादा होंगी। निश्चित रूप से हम भी एक ऐसे ही समाज मे रह रहे हैं।

बॉडी डिस्मॉर्फिया से ग्रस्त इंसान को देखना आपको इरिटेट कर सकता है। लेकिन खुद उस इंसान का जीवन कितना मुश्किल और तनावपूर्ण होता है इसकी सिर्फ कल्पना ही कि जा सकती है। जो इंसान अपने अस्तित्व को लेकर ही शर्म और तनाव से भरा हुआ है, उससे किसी भी क्षेत्र में अपने सर्वोत्तम परफॉर्मेंस की अपेक्षा नहीं की जा सकती। यह समस्या ऐसा गंभीर रूप ले सकती है, जब डॉक्टर्स और दवाओं के बिना काम न चले लेकिन शुरुआती दौर में इसे ठीक करना बहुत आसान है। इसीलिए जितनी जल्दी आप इस समस्या को पहचान लेते हैं उतनी जल्दी इसे ठीक कर सकते हैं। चूंकि यह एक तरह का वहम है इसलिए अगर पीड़ित व्यक्ति खुद इस समस्या को पहचानता है और उसे दूर करना चाहता है तो यह सबसे बेहतर स्थिति है।

इस वहम को दूर करने के लिए जरूरी है कि दूसरों को मॉडल मानना और दूसरों से खुद को कंपेयर करना बंद किया जाए। अपने बारे में दूसरों की राय पूछना बंद करें और इस बात को समझें कि इंसान की आंखें आईने या जूम लेंस की तरह काम नहीं करतीं। संवेदनशील लोगों की नजरें सिर्फ आपका शरीर नहीं देखतीं वो आपके व्यवहार और आपकी भावनाओं को भी देखती हैं। अपने शरीर पर जरूरत से ज्यादा ध्यान दिया जाना खुद अपनी कीमत को न पहचानने जैसा है। 

यह समझना जरूरी है कि दुनिया भर में अरबों रूप-रंग और आकार वाले लोग हैं और हर कोई यूनिक है। इस विविधता में ही दुनिया की खूबसूरती है।

सुंदरता का कोई एक पैमाना नहीं है। साढ़े 5 फीट की लंबाई या बेदाग गोरा रंग या 36 24 36 के पैमाने किसी धर्मग्रथ में नहीं बताए गए हैं और न ही ये कोई वैज्ञानिक सिद्धांत हैं। ये पैमाने कॉस्मेटिक्स इंडस्ट्री ने मीडिया के साथ मिलकर मुनाफा कमाने के लिए बनाए हैं। इस इंडस्ट्री की सफलता इस बात पर टिकी है कि आप अधूरा महसूस करें, तभी तो आपके मन में उनके जादुई प्रॉडक्ट्स के लिए लालसा पैदा होगी। इस अधूरेपन के अहसास के चलते कुछ जिंदगियां तबाह हो जाती हैं इससे इस इंडस्ट्री को कोई फर्क नहीं पड़ता।

अगर आपको अपना रंग या शक्ल नहीं पसंद है, आपको अपना कद कम या ज्यादा लगता है, या आपको अपने अपीयरेंस मे पुरुषत्व या स्त्रीत्व या फिर आकर्षण की कमी नजर आती है तो दोष आपके शरीर मे नहीं, उस सोच में है जो इन चीजों को आपकी पूरी पर्सनालिटी, प्रतिभा और गुणों से ज्यादा महत्व देती है। इस सोच को बदलने की जरूरत है क्योंकि इस सोच को दूर करके ही आप देख पाएंगे कि आप असल मे कितने बेहतर और खूबसूरत इंसान हैं।

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