पिछले एक दशक में हिन्दी सिनेमा ने अपनी एक अलग पहचान बनाई है। न केवल कथा की विविधता में बढ़ोत्तरी हुई है। बल्कि हमारे समय और समाज से फिल्मों का जुड़ाव भी गहरा हुआ है। जाहिर है कि इसके पीछे लेखकों निर्देशकों और पूरी एक नई पीढ़ी की भूमिका है। लेकिन परदे पर तो इसका श्रेय नए कलाकारों को ही मिलता है। हाल में रिलीज हुई फिल्म मस्त में रहने का एक बेहतरीन फिल्म है। वह इस लिहाज से अलग भी है कि इस फिल्म के लिए कलाकारों की नई और पुरानी दोनों पीढ़ियों को सराहा जा सकता है।
ऐसा लगने लगा है कि पुराने कलाकार ‘सुपर स्टार’ के अपने पुराने नोशन से चिपके रह गए और इसी वजह से कोई खास फिल्म दे पाने में अक्षम रहे हैं। हमारे समाज की तरह ही कलाकारों के प्रसंग में अगर यह पीढ़ियों के बीच तालमेल न बन पाने की ही समस्या हो तो यह चिंताजनक है। हालाँकि यह फिल्म इस चिंता को कम करती है, क्योंकि नए-पुराने कलाकार बड़ी ही संगति में हैं। असंगति के लिए न तो कथा में गुंजाइश है, न ही अभिनय में ऐसा प्रयास हुआ है।
चोरी और दोस्ती
फिल्म (मस्त में रहने का) की कथा मुख्यतः चार पात्रों कामथ (जैकी श्रॉफ), नन्हे (अभिषेक गुप्ता), हांडा (नीना गुप्ता) और रानी (मोनिका पंवार) के इर्द-गिर्द रची गई है। कामथ एक रिटायर्ड व्यक्ति है जो आमतौर पर अकेला रहना पसंद करता है। नन्हे दर्जी है और अपनी खुद की दुकान चलाने के लिए पैसे जुटाने के लिए बहुत तरह के काम करता है। इसी क्रम में वह कामथ के घर में चोरी करने घुसता है। कामथ उसे देख लेता है लेकिन नन्हे भागने में कामयाब हो जाता है। हांडा कनाडा में अपने बेटे और बहू के घर से उपेक्षा की शिकार होकर लौटी महिला है। नन्हे उसके घर में भी चोरी करता है। हांडा भी उसे देख लेती है पर वह बच जाता है।
कामथ और हांडा का आपसी परिचय इसी चोरी के चलते होता है। रानी फुटपाथ पर भीख मांगने का काम करती है और कुछ घटनाओं के चलते उसका परिचय नन्हे से हो जाता है। जहाँ एक ओर बुढ़ापे और पारिवारिक उपेक्षा से पैदा हुआ मध्यवर्गीय अकेलापन है, वहीं दूसरी ओर गरीबी से निकली हुई उपेक्षा और बेचारगी। एक ओर मध्यवर्गीय कामथ और हांडा की दोस्ती होती है और दूसरी ओर निम्नवर्गीय नन्हे और रानी की। मस्त में रहने का इस अकेलेपन और बेचारगी से जूझते पात्रों की कोशिश की कहानी है। कहानी में और क्या है, इनका क्या होता है या फिल्म का मजा लेने के लिए तो आपको इसे देखना पड़ेगा।
अपने ज़माने में सुपर स्टार रह चुके जैकी श्रॉफ इस फिल्म में बिलकुल अलग अंदाज में दिखते हैं। यह अलगाव केवल चरित्र का ही नहीं अभिनय का भी है। जैकी श्रॉफ की फिल्मों के लिहाज से यह फिल्म सबसे बेहतर अभिनय वाली फिल्मों से एक है। अभिनय सभी का अच्छा है तो निश्चित ही विजय मौर्य के निर्देशन को भी इसका श्रेय मिलना चाहिए।
मस्त में रहने का, या सोचने का
बहरहाल, फिल्म जैसी बनी है, उसमें इतनी परते हैं कि फिल्म की समीक्षा तो सचमुच ज्यादा जगह मांगती है। लेकिन हमारी और आपकी सहूलियत के लिए इसे छोटा रखना ही अच्छा होगा। हमारे समय के कई महत्वपूर्ण मुद्दों और विमर्शों को फिल्म से जोड़कर देखा जा सकता है। बुजुर्गों की स्थिति और परिवार में उनके साथ होने वाले अत्याचार से लेकर वर्गीय भेद, जेंडर भेद और रंगभेद जैसे कई मुद्दों के प्रति फिल्म सचेत दिखती है। यानी यह आम दर्शकों के साथ ही सोचने-समझने वाले लोगों के लिए भी देखने लायक फिल्म है।
इंसानियत की बात करें तो फिल्म रुत्ख़ेर ब्रेख्मान के नजरिये के साथ खड़ी है कि इन्सान मूलतः अच्छा होता है। इसलिए फिल्म में सही गलत और अच्छे-बुरे का अंतर धुंधला हो जाता है। हालाँकि फिल्म का शीर्षक (मस्त में रहने का) जितना मजाकिया और आशावादी है, फिल्म उससे कहीं ज्यादा गंभीर और यथार्थवादी है। ऐसी कम फ़िल्में होती हैं जो चरित्रों या मुद्दों के साथ न्याय करती हैं, उन्हें गंभीरता से पनपने या सामने आने देती हैं। हम ये तो नहीं कह सकते कि यह फिल्म ऐसी है या नहीं। हालाँकि इतना जरूर कहा जा सकता है कि मस्त में रहने का इस साल की उन फिल्मों में से एक है जो ऐसा करना चाहती हैं।