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एनिमल : अल्फा मैन और बन्दर

by Team Titu
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संदीप रेड्डी के निर्देशन में बनी एनिमल एक यूनिक फिल्म है जो अल्फा मैन की धारणा पर आधारित है। फिल्म काफी लम्बी है और सच कहें तो ब्यौरेवार समीक्षा की मांग करती है। हालाँकि मैंने सबकुछ को थोड़े में समेटने की कोशिश की है। फिल्म का मुख्य पात्र रणविजय (रणवीर कपूर) बलबीर सिंह (अनिल कपूर) का बेटा है। बलबीर सिंह की दो बेटियां भी हैं – रीत (सलोनी बत्रा) और रूप (अंशुल चौहान)।

भावनाएं और विचार

माँ-बाप के लिए प्रेम दिखाने वाले पुरानी फिल्मी गीतों की तरह इस फिल्म में भी पिता के प्रति एक वैसा ही कोमल गीत है – पापा मेरी जां। रणविजय अपने पिता को दुनिया का सबसे अच्छा पिता मानता है और फिल्म की मानें तो यह गीत उसकी भावनाओं को जाहिर करता है। पिता के प्रति रणविजय का प्यार दिखाने के लिए फिल्म उसे बचपन में चोट खाते और सबको अनुसना करते दिखाती है।

चूँकि फिल्म बच्चे पर नहीं बनी है, इसलिए रणवीर कपूर की एंट्री शुरू में ही हो जाती है। अपने वयस्क रूप में रणविजय अपनी भावनाओं के साथ-साथ अपने सुविचार भी फिल्म की शुरुआत में ही पेश कर देता है। उसका मानना है कि शक्ति से तय होने वाला बंटवारा उचित है और पुराने समाजों में ‘अल्फा मैन’ यानी सबसे शक्तिशाली पुरुष सबके लिए खाने और सुरक्षा का इंतजाम करते थे। जबकि बाद की व्यवस्था, कहें तो धर्मं और तमाम संस्थाओं से लेकर आधुनिक लोकतंत्र तक स्वार्थवश इकट्ठे हुए कमजोर लोगों का नतीजा है और इसका आदी होकर लोग अपने मूल चरित्र को भूलते जा रहे हैं।

‘अल्फा मैन’ की अपनी धारणा के चलते रणविजय की हर भावना अति की ओर जाती है। मसलन ‘अल्फा मैन’ सोच ले तो वो मर भी नहीं सकता टाइप। जाहिर है कि ‘अल्फा मैन’ की यह धारणा नई नहीं है और लम्बे समय से बाज़ार में बेची जा रही है। इसलिए युवा दर्शकों, खाकर पुरुष दर्शकों को फिल्म आसानी से पसंद आए तो आश्चर्य नहीं। संदेह नहीं कि ‘अल्फा मैन’ की इस धारणा का सीधा सम्बन्ध पितृसत्ता से है। इसलिए फिल्म में शुरू से लेकर अंत तक कई बार लिंग के बारे में जो इशारे या बातें की गई हैं वह कोई संयोग नहीं है। आजकल बिकने वाले एक विषय के रूप में सेक्सुअल संबंध फिल्म का हिस्सा बना है।

तार्किकता का छौंक

खैर, एक दृश्य में जब रीत को कॉलेज में छेड़े जाने पर रणविजय बदला लेता है तो बलबीर सिंह उसे मारता है और उसे क्रिमिनल कहता है। रणविजय खुद को क्रिमिनल कहे जाने पर आपत्ति करता है और पिता को यह भी बताता है कि कानूनी तौर पर बलबीर को भी क्रिमिनल कहा जा सकता है क्योंकि उसने बच्चे (रणविजय) को पीटा है। फिल्म के ऐसे दृश्य वास्तविक मुद्दों को छूते हैं और इसलिए अच्छे भी लगते हैं। लेकिन ऐसे ही दृश्यों के जरिए फिल्म यथार्थ और तार्किकता का छौंक लगाती है और अंततः अवास्तविक, झूठी और बुरी चीजों को जायज ठहरा देती है।

स्त्री-पुरुष के बीच मौजूद अंतर को आधुनिक समाज ने और खुद सिनेमा ने भी लगातार पाटने की कोशिश की है। सवाल चाहे विवाह का हो या विवाहेतर प्रेम की बात हो, सेक्सुअल संबंधों को आम अधिकार के दायरे में लाने की कोशिश की गई है। यहाँ तक कि अपने शरीर पर व्यक्ति के अपने अधिकारों को क़ानूनी मान्यता मिली हुई है। इन सबके बावजूद रणविजय न केवल अपने शरीर पर औरत के अधिकार को नकारता है, बल्कि अपनी पत्नी गीतांजलि (रश्मिका मन्दाना) से यह भी कहता है कि अगर मैं न रहूँ तो दूसरी शादी मत करना।

मजेदार यह है कि फिल्म रणविजय के तमाम कामों को एक नायक के तौर पर उचित ठहराने की कोशिश करती है। ऐसा नहीं कि फिल्मों में बदले का महिमामंडन नहीं किया जाता, ऐसा भी नहीं है कि फिल्मों में हिंसा नहीं दिखाई जाती। लेकिन यह फिल्म बदले और हिंसा के भी एक अलग रूप को दिखाती है। वैसे भी अगर बात ‘अल्फा मैन’ की हो तो यह सामान्य कैसे हो सकता है? इसलिए फिल्म अंततः भाइयों के बीच की लड़ाई को भी दिखाती है। अजीब नहीं है कि अपने भाई को अपने लिंग का इशारा करने से लेकर, अपने भाई का बेरहमी से क़त्ल करने जैसे दृश्य फिल्म में आसानी से दिखाए गए हैं। 

अल्फा मैन, बन्दर और इन्सान का रिश्ता

बात खत्म करने से पहले एक दो बातें और स्पष्ट कर देना चाहिए। ऐसा नहीं कि फिल्म पितृसत्ता को बेहतरीन ढंग से दिखाती है या रणविजय को पितृसत्ता के आदर्श चरित्र के रूप में दिखाने में सक्षम है। पितृसत्ता में पिता और पुत्र से लेकर तमाम संबंधों में जिस गरिमा की बात की जाती है वह फिल्म में पूरी तरह नदारद है। बदकिस्मती से बच्चे को लेकर जो कोमल गीत रचा गया है, इस गरिमा के बिना वह भी अर्थहीन हो जाता है। रणविजय पितृसत्ता का आदर्श चरित्र बनने की बजाय गलत परिवेश का शिकार हुआ चरित्र लगता है, जो कुल-मिलाकर  फ्रेंकेस्टाइन का ही दूसरा रूप बन गया है।

फिल्म का नाम एनिमल है और शायद वहशीपन के महिमामंडन के कारण यह नाम रखा गया है। लेकिन फिल्म की शुरुआत और अंत के दो दृश्यों – शुरुआत में रणविजय द्वारा सुनाई गई बन्दर की कहानी में और अंत में रणविजय और अबरार (बॉबी देओल) के बीच की लड़ाई – में एक समानता दिखाई देती है। अगर आपने चिम्पैंजियों के बीच की खूनी लड़ाई देखी हो तो आखिरी दृश्य उनकी लड़ाई की याद दिला देता है, संयोग से दोनों पात्रों की बढ़ी हुई दाढ़ी इसे और मुमकिन बना देती है।

वैस दर्शकों को बांधने के लिए फिल्म में बहुत कुछ है, अभिनय भी अच्छा है, लेकिन सीखने-समझने के लिहाज से फिल्म कुछ नहीं देती। हमने पढ़ा है कि हमारे पूर्वज बन्दर थे और फिल्म का सार निकालें तो पता चलता है कि तबसे हम बहुत आगे नहीं बढ़े, इंसानियत और सौहार्द्र के मामले में हमें अभी बहुत कुछ सीखना है। फिल्म देखकर हरारी याद आ जाते हैं और उनकी बात सही लगती है कि हम इंसान हमेशा से हिंसक रहे हैं और अपने साथी सेपियंस के अंत का कारण भी हम ही थे।

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