भक्षक : सरल और संवेदनशील फिल्म

भक्षक फिल्म की कहानी सरल और संवेदनशील है। फिल्म बच्चियों के यौन शोषण के मुद्दे पर बनाई गई है। पृष्ठभूमि के लिए बिहार का चुनाव किया गया है। फिल्म में वैशाली [भूमि पेडनेकर] एक पत्रकार है जो कैमरामैन और सहयोगी भाष्कर [संजय मिश्रा] के साथ छोटा क्षेत्रीय चैनल चलाती है। बच्चियों के एक सेल्टर की ऑडिट रिपोर्ट हाथ लगने से उन्हें सेल्टर में बच्चियों के ऊपर हो रही ज्यादतियों की सूचना मिलती है। इस खबर को चलाने और सरकार से सवाल पूछने के क्रम में वैशाली की समस्याओं के साथ-साथ कहानी भी आगे बढ़ती है।

फिल्म की शुरुआत थोड़े अयथार्थवादी लेकिन दुखद ढंग से एक लड़की की हत्या के साथ शुरू हुई है। असल में अगर दो चीजों को छोड़ दें तो शुरुआती दृश्य का फिल्म से कोई वास्ता नहीं है। एक वजह है दर्शकों को शुरू में ही शॉक में डाल देने की कलात्मक रणनीति। और दूसरी वजह है कथा के धरातल पर यह स्पष्ट कर देना कि फिल्म अमानवीय स्तर पर हो रहे ऐसे यौन शोषण से जुड़ी है, जिसकी खबर बाहर नहीं आ रही है। कथा बांधे रखती है और अभिनय कथा के अनुकूल है। संजय मिश्रा अपने चिर-परिचित अंदाज में भी दिखाई देते हैं और अच्छे लगते हैं।

फिल्म का मुद्दा न केवल सामाजिक बल्कि गंभीर है, इसलिए सामान्य अर्थों में इसकी मनोरंजकता पर चर्चा तो संभव नहीं है। इसलिए बात इसकी यथार्थपरकता, विश्वसनीयता और सार्थकता पर ही की जा सकती है। एक पत्रकार के तौर पर प्रभावशाली लोगों के खिलाफ किसी मुद्दे को उठाना आसान नहीं होता हम सब यह जानते हैं। खासकर तब समस्या और बढ़ जाती है जब ऐसे लोगों के सम्बन्ध सरकारी तंत्र के भीतर भी मौजूद होते हैं। फिल्म में भी ऐसी ही स्थिति है। जिस सेल्टर में ये अपराध हो रहे हैं, उसके मालिक के सम्बन्ध समाज कल्याण के अधिकारियों से लेकर नेताओं और मंत्रियों तक से हैं।

अपने चैनल पर खबर चलाने के बाद भी वैशाली को अपेक्षित परिणाम नहीं मिलते। जाहिर है कि ऐसे प्रभावशाली लोगों के खिलाफ न सरकार कुछ करना चाहती है, न ही बड़े चैनल साथ देते हैं। ऐसे लोगों के खिलाफ पत्रकारिता खतरनाक साबित हो सकती है। लेकिन फिल्म ने इस खतरे को एक दूसरे एंगल से भी दिखाने की कोशिश की है, जो फिल्म को और कारगर बनाता है। खतरे तो सभी को झेलने पड़ते हैं, लेकिन फिल्म दिखाती है कि एक महिला को उन खतरों के सिवाय क्या झेलना पड़ सकता है।

वैशाली को अपने पति और रिश्तेदारों के दबाव का सामना करना पड़ता है। पुरुष पर भी दबाव पड़ते हैं, लेकिन वे केवल खतरे की चिंता का परिणाम होते हैं। जबकि महिलाओं पर पड़ने वाले दबावों में उन्हें नीचा दिखाने की कोशिशें भी शामिल होती हैं। यह मानकर चला जाता है कि महिला फैसला मूर्खता और नादानी में ले रही है – उसके अंजामों से वाकिफ नहीं है। यह जरूर है कि फैसले नादानी में नहीं लेने चाहिए – लेकिन कोई खतरों को जानते हुए भी ऐसे फैसले ले सकता है – जैसाकि वैशाली ने किया। क्योंकि उसे खतरे से अधिक उन बच्चियों की चिंता थी।

फिल्म बच्चियों के ऊपर (अप्रत्यक्ष तौर पर महिलाओं पर भी) होने वाले अत्याचारों को संक्षेप में दिखाती है। ऐसा नहीं कि यह मुद्दा फ़िल्मी हो और इसमें कोई सच्चाई न हो। फिल्म 2018 में हुई ऐसी घटना पर आधारित है और ऐसी घटनाएँ व्यापक स्तर पर पहले भी सुनी गई हैं। इस लिहाज से फिल्म यह बताने में सक्षम है कि जेंडर का सवाल हमारे समाज में बहुत ही पीछे चल रहा है। बेसहारा या अबोध बच्चियों के साथ समाज में होने वाली ऐसी घटनाएं बताती हैं कि समाज में अपने अधिकारों की जागरूकता भी कम है और दूसरों के प्रति संवेदनशीलता भी।

हम कहने को ही सबको इंसान कहते हैं, सच्चाई यही है कि पारंपरिक तौर पर अपने परिवेश से जो ज्ञान मिल रहा है वो यह है कि असली इन्सान केवल हम हैं। बाकियों को जीने का अधिकार तभी तक है जब तक वे हमारे काम आते हों या हमारे हिसाब से काम करते हों।

यूं तो फिल्म अच्छी है और संवादों को क्षेत्रीय टच अच्छा दिया गया है। लेकिन कला के तौर पर संवादों में जो सहजता होनी चाहिए उसकी कमी महसूस होती है। वैचारिक पक्ष फिल्म के संवादों पर कहीं-कहीं हावी भी हुआ है जैसे एक संवाद है “खासकर तब जब हम किसी का जीवन बचा सकें”। ऐसे संवाद फिल्म की कलात्मकता में कमी लाते हैं। यह कहना इसलिए पड़ रहा है क्योंकि ये चीजें जितनी बेहतर होंगी फिल्म या कोई भी कला उतनी ही प्रभावी होगी। वैचारिकता का दबाव इस हद तक है कि आखिरी सीन में वैशाली कहती है कि मैं एक सवाल छोड़े जा रही हूँ और तीन सवाल छोड़ती है।

खैर!

Related posts

नेफ़ेरियस : मृत्युदंड और शैतान की सोच

एनिमल : अल्फा मैन और बन्दर

थ्री ऑफ़ अस : जिंदगी का डिमेंशिया