अपनी किताब ह्युमनकाइंड : मानवजाति का आशावादी इतिहास में रुत्खेर ब्रेख्मान इंसानी प्रकृति के बारे में बिलकुल नया नजरिया पेश करते हैं। मनुष्यों की आक्रामक प्रकृति और स्वार्थीपन के बारे में चली आ रही धारणाओं को चुनौती देते हुए ब्रेख्मान ने दावा किया है कि मनुष्य मूलतः दोस्ताने स्वभाव के होते हैं। इस स्वभाव के चलते ही इस किताब में मनुष्यों को उन्होंने ‘होमो पपी’ का नाम दिया है। मानव प्रकृति के बारे में उनके इस मौलिक दावे ने उनके प्रशंसक और आलोचक दोनों तैयार किये हैं। यहाँ हम ह्युमनकाइंड में व्यक्त विचारों और उसपर आलोचकों की आपत्तियों की संक्षिप्त चर्चा करेंगे ताकि आप किताब से परिचित हो सकें।
विनीयर सिद्धांत का नकार
विनियर सिद्धांत का नकार ह्यूमनकाइंड का एक मुख्य मुद्दा है। इस सिद्धांत के अनुसार सभ्यता के बहुत पतले मुलम्मे के पीछे छिपे इन्सानों की प्रकृति मूलतः क्रूर होती है। इस सिद्धांत को नकारते हुए ब्रेख्मान इंसानों की सामाजिकता और उनकी सहयोगी प्रकृति को रेखांकित करते हैं। उनका दावा है कि समस्या इंसानों की प्रकृति के कारण नहीं बल्कि सभ्य समाज द्वारा बनाई गई बाजार और दूसरी चीजों के कारण पैदा हुई है।
युवाल नोवा हरारी की बेस्टसेलर किताब सैपियन लिएंडरथल प्रजाति के खात्मे का जिम्मेदार होमो सैपियन को ठहराती है। ह्यूमनकाइंड में ब्रेख्मान हरारी के इस दावे के अलावा, प्रागैतिहासिक समाजों को हिंसक और भेदभाव आधारित बताए जाने के पारंपरिक दृष्टिकोण को भी चुनौती देते हैं। पुरातात्विक और नृतत्वशास्त्रीय साक्ष्यों का सहारा लेते हुए ब्रेख्मान साबित करने की कोशिश करते हैं कि आम धारणा के उलट ये समाज सामूहिक निर्णय लेते थे और औचित्य तथा सहयोग का बोध रखते थे।
इंसानी अच्छाई को बताने के लिए ब्रेख्मान ने बहुत से उदाहरण दिए हैं और उनका हर उदाहरण जानने लायक है। उनके उदाहरणों में व्यक्तिगत घटनाओं से लेकर द्वितीय विश्वयुद्ध के ऐसे उदाहरण भी शामिल हैं जहाँ विश्वयुद्ध के बीच पूरी सैन्य टुकड़ी भी मानवीय ब्यवहार करने लगती है। मजेदार यह है कि इस अच्छाई की बात करते हुए वे लोमड़ियों के एक प्रयोग की भी बात करते हैं। इस प्रयोग में जंगली लोमड़ियों को पालतू बनाने की कोशिश की गई थी। लोमड़ियों की पीढ़ियाँ जब पालतू बनने लगीं तो उनके स्वभाव में तो अंतर आया ही, उसके साथ ही उनकी शक्ल और सूरत में भी अंतर आने लगे।
आदर्श इंसान का मिथक
इस बात के लिए ह्युमनकाइंड की आलोचना हुई है कि ब्रेख्मान रूसो के मिथक की तर्ज पर प्रागैतिहासिक समाजों की अच्छाई का बेबुनियाद दावा करते हैं। वे समाजों की जटिलता और भिन्नता को धुंधला कर देते हैं। वे यह भुलाना चाहते हैं कि पुरातात्विक साक्ष्यों में मिलने वाली खोपड़ियों पर गहरी चोटों के भी निशान हैं। बेशक ऐसे साक्ष्य हिंसा की पुष्टि करते हैं। जाहिर है कि ब्रेख्मान ऐसे साक्ष्यों का जिक्र नहीं करते। ब्रेख्मान ने बिलकुल नई पद्धति अपनाई है और उनके साक्ष्य भी पारंपरिक ढर्रे से अलग लगते हैं। लेकिन अपनी बातों के लिए उन्होंने कम ठोस प्रमाण नहीं दिए हैं।
ह्युमनकाइंड (मानवजाति का आशावादी इतिहास) में उन प्रयोगों को और कहानियों को भी गलत साबित करते हैं जो बीते वर्षों में मनुष्य के स्वार्थीपन और क्रूरता की पुष्टि करते रहे हैं। उदाहरण के लिए फिलिप जिम्बार्डो का जेल सम्बन्धी मनोवैज्ञानिक प्रयोग जिसे लगातार मनुष्य की क्रूरता के उदाहरण के रूप में पेश किया जाता रहा है। इस प्रयोग की चर्चा करते हुए ब्रेख्मान बताते हैं कि इस प्रयोग में शामिल भागीदारों की वास्तविक स्थिति को नहीं बताया गया। प्रयोग के निष्कर्षों को जान बूझकर एक खास दिशा दी गई। इसी तरह वे विलियम गोल्डिंग के लार्ड ऑफ़ द फ्लाइज को ठोस उदाहरणों के जरिये इंसानी बुराई की एक मनगढ़ंत कथा साबित करते हैं।
आशावादी इतिहास और सकारात्मक अपेक्षाएं
ब्रेख्मान के तर्क के पीछे सकारात्मक उम्मीद का पहलू भी काम करता है। वह दूसरों के भीतर अच्छाई देखने की वकालत करते हैं। ये एक दिलचस्प चीज है कि ह्युमनकाइंड में आशावाद के विभिन्न पहलुओं के लिए ऐसे-ऐसे ऐतिहासिक साक्ष्य दिए गए हैं जिन्हें पढ़कर वाकई हैरानी होती है। ब्रेख्मान को भरोसा है कि अगर व्यक्ति उम्मीद और विश्वास का दामन थामे रखे और उसे बढ़ावा दे तो वह सचमुच एक ज्यादा बेहतर समाज को बनाने में योगदान कर सकता है।
ह्युमनकाइंड (मानवजाति का आशावादी इतिहास) का दायरा काफी विस्तृत है। एक ओर उसमें जीवन से जुड़ी बड़ी संवेदनशील चर्चाएँ हैं तो दूसरी ओर संस्थाओं और राजनीति के प्रसंग भी उतने ही सहज ढंग से उसमें आए हैं। ब्रेख्मान आधुनिक संस्थाओं और व्यवहारों के पुनर्मूल्यांकन की मांग करते हैं। किताब लक्ष्य पर जोर देने वाले उस बिजनेस कल्चर पर सवाल उठाती है जो सामूहिक बेहतरी की बजाय व्यक्तिगत लक्ष्यों पर जोर देता है। वे कार्यस्थल पर ज्यादा ऑटोनोमी और कम निगरानी की हिमायत करते हैं। और यह केवल उनकी राय नहीं है वे इसे सही साबित करने वाले उदाहरण भी देते हैं।
ब्रेख्मान मीडिया के मौजूदा स्वरूप की भी आलोचना करते हैं जो क्रूर अपराधों के बारे में सनसनी फैलाने और अलगाववाद परोसने में जुटा हुआ है। सूचनाओं से छेड़छाड़ करते और गुमराह करते शीर्षकों को तैयार करने वाली वर्तमान पत्रकारिता के गंभीर प्रभावों को रेखांकित करने वाला उनका विश्लेषण जिम्मेदार मीडिया व्यवहारों और सटीक रिपोर्टिंग की जरूरत पर जोर देता है। वे एक महिला का उदाहरण देते हैं जिसे रात में किसी ने चाकू मार दिया और उसकी मृत्यु हो गई। कुछ दिनों बात अखबार में छपी खबर से लोगों को पता चला कि पड़ोसियों ने पुलिस को फोन नहीं किया वरना वह बच जाती। जबकि सच्चाई यह थी कि पड़ोसियों ने पुलिस को फोन भी किया था और महिला ने अपनी दोस्त की बाँहों में दम तोड़ा था।
भविष्य के लिए उम्मीद
ह्यूमनकाइंड की आलोचनाओं के बावजूद ब्रेख्मान की यह किताब एक बेहतर भविष्य का सपना जगाती है। इंसानों को मूलतः मतलबी मानने वाली आम धारणा को नकारने वाले ब्रेख्मान पाठकों को परवाह करने और संवेदनशीलता बरतने के लिए प्रेरणा देते हैं। वे निराशावाद को छोड़कर एक ऐसा समाज बनाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं जहाँ सहयोग, हमदर्दी और ईमानदारी हो।
पढ़ें या नहीं?
ब्रेख्मान की यह किताब हमारे समय में दर्शन पर लिखी गई सबसे महत्वपूर्ण किताबों में से एक है। ह्युमनकाइंड (मानवजाति का आशावादी इतिहास) मानव प्रकृति के बारे में एक विचारोत्तेजक नजरिया पेश करती है। प्रागैतिहासिक समाजों को आशावाद या सरलीकरण के साथ नहीं देखा जाना चाहिए लेकिन सकारात्मक उम्मीद और भरोसे पर ब्रेख्मान का जोर उससे कहीं अलग है। यह हमारे समय की चुनौतियों के बीच से निकलने वाली किताब है और यह न केवल उन्हें झेलने बल्कि उनसे निपटने का भी हौसला पैदा करती है। चाहे आप उनकी बात से सहमत हों या उसपर संदेह करें एक बात तय है कि यह किताब ज्यादा संवेदनशील और सौहार्द्रपूर्ण दुनिया की चाह रखने वाले पाठकों को जरूर पढ़नी चाहिए।