शुरुआत इसी बात से करनी चाहिए कि लगता है कि फिल्म मूलतः 35+ उम्र के दर्शकों के लिए बनाई गई है। खासतौर पर इसलिए कि फिल्म की कथा अतीत को केंद्र में रखती है। एक तो शुरुआत डिमेंशिया से, ऊपर से न कोई आइटम सॉंग, न मारपीट, न ही कोई पेचीदा लव स्टोरी। फिल्म में कुछ ज्यादा ही सादगी है। हालाँकि यह बुरा नहीं है, बल्कि इस अर्थ में ख़ास है कि यह नयेपन को मौका देता है। इसका अर्थ है कि किसी ढर्रे को अपनाया नहीं गया बल्कि कुछ नया रचने की कोशिश की गई है।
फिल्म की कहानी शैलजा देसाई (शेफाली शाह) के साथ शुरू होती है जिसे हाल ही में अपने डिमेंशिया का पता चला है। वह नौकरीपेशा महिला है और अपने पति दीपांकर देसाई (स्वानंद किरकिरे) के साथ रहती है। उसका एक बेटा भी है लेकिन वह साथ नहीं रहता। एक दिन अचानक ही वह अपने पति से कोंकड़ के एक कस्बे में चलने की बात करती है। पति के पूछने पर वह बताती है कि उसने वहाँ कुछ सालों तक पढ़ाई की थी। आगे की कथा कोंकड़ के उसी कस्बे में प्रदीप कामत (जयदीप अहलावत) के साथ आगे बढ़ती है।
बहरहाल, देखते हुए ऐसा लगता है जैसे फिल्म फ्लैश बैक की तरह अतीत में चल रही हो। लेकिन ऐसा है नहीं। फिल्म लगातार समय में आगे बढ़ती है, बस अतीत को बार-बार कुरेदती रहती है। मजेदार बात यह है कि फिल्म आम दर्शकों के साथ तालमेल बैठाने की जैसे कोशिश ही नहीं करती। यानी फिल्म सबकी जिंदगियों से जुड़ने वाली कोई ऐसी आम कथा लेकर नहीं आती, जिससे आप यूँ ही जुड़ जाएं। इसकी बजाय कथा बहुत ही व्यक्तिगत हो जाती है। कहें तो ऐसा कुछ भी नहीं है जो आपको अपनी कथा जैसा लगे। इसके बावजूद फिल्म आपको अपनी ओर खींचती है।
कथा के इस अलगाव के बावजूद फिल्म अपनी ओर कैसे खींच पाती है? असल में फिल्म की मजबूती आपको कथा और घटनाओं से जोड़ने में नहीं है। इसके उलट यह आपको उन भावनाओं से जोड़ने की कोशिश करती है जो आपके मन में कहीं दबी छिपी रह जाती हैं। अच्छी बात यह है कि यह बचपन या अतीत का नास्टेल्जिया नहीं है। यहाँ सवाल इसका नहीं है कि जीने में अब वो मजा नहीं है या अब दुनिया वैसी नहीं है, सवाल कुछ और हैं।
सवाल दौड़ती-भागती इस जिंदगी में अपने ही जिंदगी के टुकड़ों को भूल जाने का है। अपनी जिंदगी का एक-एक पल हम जितनी चाह से जीते हैं, समय के साथ ही उसे भूलते भी जाते हैं। भूले-बिसरे कुछ नाम याद भी आ जाएं तो नाम भर रह जाते हैं। एक डिमेंशिया का मरीज चीजों को याद रखने की जितनी कोशिश करता है, उसकी बराबरी में हम बहुत तेजी से भूलने के आदती होते हैं। डिमेंशिया से परेशान इंसान अपनी भूलों पर पछताने या प्यार जताने के लिए इंतजार करेगा तो उसे क्या हासिल होगा?
कुछ नहीं, और हमें भी वही हासिल होता है, लेकिन हम इसके आदी हैं। हमारा अतीत हमारा ही हिस्सा होता है, हमारा भविष्य इसी अतीत से ही बनता है, लेकिन उसे भुला देने में हमें आसानी होती है, चाहे बदले में हम कुछ भी गँवा दें। क्या यह सोचने की चीज नहीं है? जाने-अनजाने फिल्म इन चीजों को बताती है इसलिए यह किसी उम्र की सीमा में बंधी हुई नहीं है। फिल्म बताती है कि गलतियाँ ठीक की जा सकती हैं, इस भागदौड़ के बीच भी भावनाओं को छीजने से बचाया जा सकता है, तमाम रिश्तों में प्यार को बनाए रखा जा सकता है।