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गोरेपन की चाहत और पितृसत्ता की वापसी

by Team Titu
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खूबसूरत दिखने की इच्छा इंसान की फितरत में है। दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यताएं भी सुंदरता के प्रति मानवीय आकर्षण का सबूत देती हैं लेकिन खुद सुंदरता बड़ी रहस्यमयी सी चीज है। जो इंसान कुछ लोगों को बेहद सुंदर लगते हैं, वही दूसरों को फूटी आंख नहीं सुहाते। ऐसा क्यों है? सवाल तो यह भी है कि चीजें अपने आप मे खूबसूरत होती हैं या खूबसूरती देखने वाले के नजरिये में होती है। क्या पितृसत्ता का भी इससे कोई सम्बन्ध है।

बहरहाल, इस बात से सभी सहमत हैं कि शारीरिक सुंदरता किसी एक चीज पर निर्भर नहीं है। बाल, आंखें, होंठ, रंग और लंबाई से लेकर हाव-भाव तक हर चीज शारीरिक सौंदर्य को प्रभावित करती है। इन सभी को ज्यादा से ज्यादा आकर्षक बनाने की कोशिशों में लगातार इजाफा हुआ है लेकिन कुछ समय से दुनिया के बहुत से देशों में और खासकर भारत में अकेले त्वचा को इतना ज्यादा महत्व दिया जाने लगा है कि गोरेपन की चाहत ने एक जुनून का रूप ले लिया है।

अखबार और टेलीविजन गोरा करने के लुभावने विज्ञापन परोस रहे हैं। हर गली में ब्यूटी पार्लर खुल गए हैं और YouTube गोरा बनाने वाले नुस्खों से भरा हुआ है। इन नुस्खों की एक खास बात यह भी है कि ये फटाफट आपको गोरा बनाने का भरोसा दिलाते हैं। इससे रंग बदलने को लेकर लोगों के मन में मौजूद बेचैनी को समझा जा सकता है। इस बेचैनी का आलम यह है कि कोरोना महामारी के इस डरावने दौर में भी गोरेपन के लिए चिंतित लोगों की तादाद करोड़ों में है। इसका गहरा सम्बन्ध पितृसत्ता से है।

लेकिन गोरा होने की हसरत में आखिर बुराई क्या है?

अगर बाल रंगने की तरह ही लोग केवल शौक के लिए त्वचा का रंग बदलना चाहते तो ये कोई बड़ी समस्या न होती लेकिन जो लोग गोरा होना चाहते हैं वे सांवलापन दूर भी करना चाहते हैं। मतलब यह कि गोरेपन का आकर्षण सांवले या कालेपन के प्रति घृणा से जुड़ा हुआ है।  हैरानी की बात नहीं कि अधिकांश उत्तर भारतीय लोग दक्षिण भारतीयों के प्रति उपहास का भाव रखते हैं और अफ्रीकी लोगों के प्रति उनका नस्लवादी पूर्वग्रह अक्सर दिखाई दे जाता है। लगता है कि हम यह बात पूरी तरह भूल चुके हैं कि अंग्रेजों की नजर में सभी भारतीय काले ही थे, चाहे वो गोरे हों या सांवले। 

दिलचस्प बात यह है कि गोरेपन का यह जुनून पुराना नहीं बल्कि पिछले 30 सालों में पैदा हुआ है। रूप-आकार को लेकर आज के लोगों की पसंद पुराने लोगों से बहुत अलग है क्योंकि सुंदरता के पैमाने समय के साथ-साथ बदलते रहते हैं। प्राचीन परंपरा में सांवलापन कभी सुंदरता के रास्ते में रुकावट नहीं रहा। संस्कृत साहित्य में गोरे रंग के साथ-साथ श्याम वर्ण की प्रशंसा के ढेरों उदाहरण मौजूद हैं। हिंदुओं के सबसे आकर्षक देवता राम और कृष्ण दोनों ही गोरे नहीं बल्कि सांवले हैं।

भारत मे जितनी विविधता मौजूद है उसके चलते कोई एक रंग-रूप सभी के लिए पैमाना हो भी नहीं सकता था।  कुछ विद्वानों का मानना है कि अंग्रेजों की गुलामी में रहने की वजह से ही भारतीयों के मन में गोरेपन को लेकर यह ग्रन्थि पैदा हुई है।

गोरेपन की सनक

आधुनिक काल से पहले तक रंग को एक प्राकृतिक चीज माना जाता था और इसीलिए उसे बदलने का ख्याल भी इंसान के मन मे नहीं आता था क्योंकि जो चीजें पाई नहीं जा सकती हम उनकी कामना भी नहीं करते। लेकिन 90 के दशक में उदारीकरण की शुरुआत के साथ पूरा परिदृश्य ही बदल गया। फ़िल्म निर्माण की तकनीकों में बदलाव, सैकड़ों चैनल और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सौंदर्य उत्पादों के आगमन के साथ एक नया मिथक गढ़ा जाने लगा।

पितृसत्ता नए रूप में सामने आई। फिल्मों और मीडिया ने यकीन दिलाना शुरू किया कि गोरापन और सुंदरता एक-दूसरे के पर्याय हैं और जो सुंदर नहीं वो अच्छा भी नहीं हो सकता। कॉस्मेटिक्स निर्माताओं ने लोगों के मन मे यह ग्रन्थि पैदा की कि काला होना शर्मनाक और दुर्भाग्यपूर्ण है और सौन्दर्य उत्पादों के प्रयोग से अपने प्राकृतिक रंग को चमत्कारी ढंग से बदला जा सकता है। इसी के साथ गोरे रंग की चाहत एक सनक में बदलने लगी। 

गोरेपन की यह चाहत सिर्फ स्त्रियों में है ऐसा मानना बचकानापन होगा। पिछले कुछ सालों में बाजार में एक नया बदलाव यह देखने को मिला है कि जहां पहले पुरुषों के लिए कॉस्मेटिक्स के नाम पर शेविंग क्रीम और ऑफ्टर शेव लोशन जैसी कुछ ही चीजें मौजूद थीं, वहीं अब फेसवॉश से लेकर हेयर जेल और गोरा बनाने की क्रीम समेत सैकड़ों प्रॉडक्ट बाज़ार  में आ चुके हैं और इसी के साथ किशोरों और युवा लड़कों में सौंदर्य को लेकर अद्भुत जागरूकता पैदा हुई है। पुरुष कॉस्मेटिक्स के इस नए-नवेले बाजार ने स्त्रियों के लिए बने कॉस्मेटिक्स बाजार को टक्कर देना  शुरू कर दिया है – आखिर पैसे उनकी जेब में ज्यादा हैं। सजने-संवरने पर अब सिर्फ औरतों का हक़ नहीं रहा, तैयार होने में कुछ पुरुष महिलाओं से भी ज्यादा समय लगाने लगे हैं। लेकिन ऐसा मानना खुशफहमी होगा कि इससे उनके बीच मौजूद गैरबराबरी कुछ कम हो जाएगी।     

एक पितृसत्तात्मक समाज में सौंदर्य के पैमाने भी पितृसत्तात्मक ही होते हैं।

अगर त्याग, कोमलता और शर्म को स्त्रियों का गुण माना जाएगा तो सुंदरता के पैमाने भी इन्हीं गुणों के अनुरूप होंगे। अगर अधिकांश लोगों को बॉडी बिल्डर महिलाओं की तस्वीरें विचलित करती हैं तो इसकी वजह यही है कि वे महिलाओं से किसी और भूमिका की अपेक्षा करते हैं और इसीलिए उन्हें महिलाओं की मांसपेशियों में नहीं बल्कि उनकी मांसलता में दिलचस्पी है.

स्त्रियों का पुरुषों जैसा होना या पुरुषों का स्त्रियों जैसा होना शर्मनाक माना जाता रहा है और ऐसा दिखने वाले लोगों को जिंदगी भर उपहास और अपमान का पात्र बनना पड़ता है। आंख, नाक, कान, बाल और होंठ इत्यादि के मूलतः एक जैसा होने के बावजूद सौंदर्य के नाम पर स्त्रियों और पुरुषों को ज्यादा से ज्यादा अलग दिखाने के उपाय खोज निकाले गए हैं. हालांकि गोरापन एक ऐसी चीज है जिसे स्त्री और पुरुष दोनों चाहते हैं लेकिन इसमें संदेह नहीं कि युवा लड़कियों पर इसका दबाव सबसे ज्यादा पड़ता है। 

लेकिन सौंदर्य के पितृसत्तात्मक पैमाने सिर्फ स्त्रियों और पुरुषों में ही फर्क नहीं पैदा करते। वे अमीर और गरीब में भी फर्क पैदा करते हैं। एक तरफ त्वचा को संवारने और उसका रंग निखारने वाले प्रसाधनों का खर्च सिर्फ सम्पन्न लोग ही उठा सकते हैं, वहीं दूसरी ओर अभाव और मौसम की मार गरीबों की चमड़ी के जन्मजात रंग को भी बदल डालती है। ऐसे में इंसान का रंग उसकी हैसियत का प्रतीक बन जाता है। 

रंग, प्रतिभा और हैसियत

सुंदरता को स्त्री का प्रधान गुण मानने वाला पितृसत्तात्मक समाज उनकी बुद्धि और गुणों से ज्यादा उनकी त्वचा पर ध्यान देता है। विवाहों के विज्ञापन दूल्हन के गोरेपन को  विवाह की पहली शर्त बताते है। अगर सौंदर्य सबसे ज्यादा डिमांडेड क्वालिटी है तो सबसे ज्यादा क्षमता भी उसी पर जाया होगी। जाहिर है कि ऐसे में अपनी प्रतिभा को पूरी तरह विकसित करने लायक समय और क्षमता उनके पास नहीं बचेगी। इस तरह सौंदर्य लड़कियों को जिंदगी की दौड़ में पीछे बनाए रखने में पितृसत्ता का सबसे बड़ा औजार साबित होता है। रंग-रूप से लोगों के बीच तुरंत जो अटेंशन और तारीफ हासिल होती है उसका आकर्षण इतना प्रबल है कि पितृसत्ता की इस साजिश का पता ही नहीं चलता। 

ध्यान देने की बात यह है कि हमारे मौजूदा दौर में ही पितृसत्ता को सबसे जबरदस्त चुनौती मिल रही है। लड़कियों के मन में नारीवाद के प्रति जबरदस्त आकर्षण पैदा हुआ है। पारंपरिक भूमिकाओं से बाहर निकल कर उन्होंने शिक्षा, रोजगार, कला-कौशल  और नेतृत्व के क्षेत्र में  नए शिखरों को छुआ है।

महिलाओं को लेकर खुद पुरुषों की सोच में बदलाव आया है और उनका एक तबका उदार बनने की कोशिशों से गुजर रहा है। लेकिन  ठीक इसी दौर में पितृसत्ता ने विज्ञान और प्रौद्योगिकी के सहारे जबरदस्त ढंग से वापसी की है। एंड्रॉयड फोन, इंटरनेट और सोशल मीडिया ने जहां एक ओर बहुत से बंद दरवाजों को खोल दिया है वहीं दूसरी ओर इसने खुद को सुंदर देह के ही रूप में देखने और दिखाने का ऑब्सेशन पैदा किया है। सेल्फी खींचने और पोस्ट करने का बढ़ता ट्रेंड यही बताता है। सौंदर्य उत्पादों के बाजार में आ रही उछाल इसी ओर इशारा कर रही है और गोरा बनाने के नुस्खों की खोज से यही पता चलता है।

यह पितृसत्ता, पूंजी और विज्ञान का गठजोड़ है।

निःसन्देह त्वचा हमारे व्यक्तित्व और अस्तित्व का हिस्सा है। लेकिन गोरेपन का यह महिमामण्डन हमारे व्यक्तित्व की कीमत पर किया जा रहा है। त्वचा के रंग को जितना अधिक महत्व दिया जाएगा उसके पीछे मौजूद इंसान की असली कीमत उतनी ही नीचे गिर जाएगी। 

यह पितृसत्ता की एक खास विशेषता है कि वह मनुष्य के गुणों की बजाय उसके रंग रूप और शरीर को अहमियत देती है।

कॉस्मेटिक्स उत्पादों को बनाने के लिए पशुओं पर जो हिंसा होती है उसकी तो बात ही अलग है लेकिन गोरा बनाने वाले उत्पादों में मिले केमिकल्स का त्वचा पर जो घातक प्रभाव होता है अगर उसकी भी परवाह न  करें, तो भी गोरा बनने की इस चाहत का आपके पूरे व्यक्तित्व पर जो मनोवैज्ञानिक असर पड़ता है, उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। यह बॉडी डिसमॉर्फिया जैसी गंभीर मनोवैज्ञानिक बीमारियों को जन्म दे सकता है। अपनी त्वचा के रंग से नफरत करने वाले लोग जिंदगी भर के लिए हीनताबोध का शिकार बन सकते हैं। एक के बाद दूसरा नुस्खा आजमा कर निराश होते जा रहे लोग इस बात से बेखबर हैं कि वो अपने आप को डिप्रेशन की ओर धकेल रहे हैं।

जरूरी यह है कि त्वचा साफ-सुथरी और स्वस्थ हो, उसका रंग चाहे जो भी हो। अगर अपने रंग के  कारण खुद को दूसरे से बेहतर समझना गलत है तो उसकी वजह से खुद को दूसरों से कमतर समझना भी उतना ही गलत है। अगर आप चाहते हैं कि आप जैसे भी हैं दूसरे आपको उसी रूप में प्यार करें तो सबसे पहले आप खुद को प्यार करना शुरू कीजिए। 

फर्स्ट इंप्रेशन इज लास्ट इम्प्रेशन एक झूठा मिथक है। इंसानी रिश्ते फर्स्ट इंप्रेशन नहीं बल्कि लॉन्ग टर्म इम्प्रेशन के अनुसार बनते और बदलते हैं। सच्चाई यह है कि हम सुंदर लोगों से प्यार नहीं करते बल्कि जिन्हें हम प्यार करते हैं वे अपने-आप हमें सुंदर लगने लगते हैं। क्या आपको भी ऐसा नही लगता?

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